जगद्गुरु रामानंदाचार्य प्राकट्य महोत्सव – चौथा दिन
रोहित सेठ
श्री राम मंदिर वाराणसी
दिनांक 28 जनवरी 2024
श्री राम मंदिर गुरुधाम वाराणसी में समायोजित श्रीमद आद्यजगदगुरू श्री रामानंदाचार्य जी के ७२४वें प्राकट्य महोत्सव के उपलक्ष्य में समायोजित नवदिवसीय श्री राम कथा के चतुर्थ दिवस में श्रीमद जगद्गुरु अनंतानंद पद प्रतिष्ठित स्वामी डॉ राम कमल दास वेदांती जी महाराज ने आझ जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य जी के उपदेशों के संदर्भ में बताया की शास्त्रों में मनुष्य को बार बार मनुष्य बनने का उपदेश दिया , जिसका मतलब है कि केवल दो हाथ दो पांव से ही मनुष्य नही हो जाना अपितु , मनुष्य के अंदर धर्म शीलता करुणा परोपकार तथा एक दूसरे के सुख-दुख में सहयोग की प्रवृत्ति हो वही मनुष्य है। प्रत्येक मनुष्य के अंदर मर्यादित जीवन जीने की प्रेरणा श्री राम चरित मानस प्रदान करती है। श्री राम का चरित्र हमें एक दूसरे को सम्मान करना सीखाती है राम कथा में जगतगुरु अनंतानंद द्वाराचार्य स्वामी डॉ राम कमल दास वेदांती जी महाराज जी ने श्री रामचरितमानस में वर्णित श्री राम विवाह का विस्तार पूर्वक वर्णन किया। उन्होंने बताया कि देव दुर्लभ मानव शरीर सांसारिक कर्तव्यों को पूर्ण करते हुए ईश्वर को प्राप्त करने के लिए ही मिला है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सांसारिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करते हुए भी अपनी मूल लक्ष्य का त्याग नहीं करना चाहिए। श्री राम कथा में वर्णित लक्ष्मण परशुराम संवाद के माध्यम से बताया गया कि क्रोध में भरा हुआ व्यक्ति अपने सामने खड़े हुए भगवान को भी नहीं पहचान पाता। इसीलिए भगवान परशुराम जी भी अपने सामने खड़े हुए श्री राम को नहीं पहचान पाए और वे श्रीराम को भी अनुचित शब्दों में फटकारते हैं। और तब अपने बड़े भाई का असम्मान होते हुए देखकर श्री लक्ष्मण जी आगे आकर भगवान परशुराम जी को बताने का प्रयत्न करते हैं कि भगवान राम ने धनुष को तोड़ा नहीं है।उनके स्पर्श करते ही धनुष खुद ही टूट गया। किंतु परशुरामजी को लगा जिस धनुष को हजारों राजा मिलकर हिला तक ना सके वह धनुष श्री राम के स्पर्श करते ही टूट कैसे गया और अंत में भगवान परशुराम ने अपने धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए भगवान राम को अपना धनुष दे दिया किंतु वे उस समय आश्चर्य में पड़ गए जिस समय उनके हाथ में जाते ही धनुष की प्रत्यंचा खुद ही चढ़ गई। अंत में वे श्री राम को भगवान का अवतार जानकर उन्हें नमन करके तपस्या करने चले गए।
हमारे जीवन में लक्ष्मण जैसे एक सद्गुरु की आवश्यकता है जो हमें सांसारिकता से निकाल कर भगवान से मिला दे।
कथा के अंत में राजा जनक के निमंत्रण पर अयोध्या नरेश राजा दशरथ सज धज कर पूरी बारात के साथ जनकपुरी पहुंचते हैं ।